विद्यार्थी और अनुशासन
अनु और शासन इन दो शब्दों के मेल से 'अनुशासन' शब्द बना है । इसमें अनु' उपसर्ग का अर्थ है-पश्चात, बाद में साथ आदि । 'शासन' का अर्थ है नियम, विधान, कानून आदि । इस प्रकार दोनों के मेल से बने अनुशासन का सामान्य एवं व्यावहारिक अर्थ यह हआ कि व्यक्ति जहाँ भी हो, वहाँ के नियमों, उपनियमों तथा कायदे-कानून के अनुसार शिष्ट आचरण करे । एक आदमी अपने घर में अपने छोटों या नौकर-चाकरों के साथ जिस तरह का व्यवहार कर सकता है, वैसा घर के बाहर अन्य लोगों के साथ नहीं कर सकता । घर से बाहर समाज का अनुशासन भिन्न होता है । इसी तरह दफ्तर में आदमी को एक अलग तरह के माहौल में रहना और वहाँ के नियम-कानूनों का पालन करना होता है । मन्दिर का नियम-अनुशासन अलग होता है, बाजार एवं मेले का अनुशासन अलग हुआ करता है । ठीक इसी तरह एक छात्र जिस विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने जाता है, वहाँ उसे एक अलग तरह के माहौल में रहना पड़ता है। वहाँ का अनुशासन भी उपर्युक्त सभी स्थानों से सर्वथा भिन्न हुआ करता है । अत: व्यक्ति जिस किसी भी तरह के माहौल में हो, वहाँ के मान्य नियमों, सिद्धान्तों का पालन करना उसका कर्त्तव्य हो जाता है । इस कर्त्तव्य का निर्वाह करने वाला व्यक्ति ही अनुशासित एवं अनुशासन प्रिय कहलाता है।
सन् 1974 ई० की समग्र क्रांति के प्रणेता जयप्रकाश नारायण तथा आपातकाल विरोधी आंदोलन के नेताओं ने शासन के विरुद्ध विद्यार्थी वर्ग का खुलकर प्रयोग किया। विरोधी आंदोलनों के परिणामस्वरूप मई, सन् 1977 ई० के बाद तो अनशासनहीनता चारों ओर फैलती जा रही है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात आपातकाल से पहले तक का समय ऐसा था, जब स्कूल-कॉलेजों में अनुशासन का पूर्ण रूप से पालन कर छात्रों में गुरुजनों के प्रति श्रद्धा का भाव था । वे नियमित रूप से एकाग्रचित होकर अध्ययन करते थे । अब तो छात्र आये दिन कोई न कोई उपद्रव खडा करते रहते हैं।
अनुशासन तोड़ने पर शारीरिक दण्ड देना कानूनी अपराध है। तब विद्यार्थी को किस तरह डराकर रखा जाये ? तलसीदास जी ने कहा है, 'भय बिनु होय न प्रीति।' जब भय नहीं तो विद्रोह होना स्वाभाविक है।
आज के स्वार्थपूर्ण, अस्वस्थ वातावरण में विद्यार्थियों को शांत और नियम में रखना अस्वाभाविक जान पडता है। अस्वस्थ प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह उसकी जागरूकता का परिचायक बन गया है। जिस प्रकार अग्नि जल और अणशक्ति का रचनात्मक तथा विध्वंसात्मक दोनों रूपों में प्रयोग सम्भव है, उसी प्रकार यवा-शक्ति का उपयोग भी ध्वंसात्मक और रचनात्मक दोनों रूपों में किया जा सकता है। युवा-शक्ति का रचनात्मक उपयोग ही रात-हित में वांछनीय है । यह तभी सम्भव है जब शिक्षक की भूमिका गरिमापूर्ण हो तथा राजनीति को शिक्षा से दूर रखा जाये |
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